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अनुराग कश्यप से हाथ मिलाना था बस... — हुसैन हैदरी

कुछ दिन पहले मुझे अनुराग कश्यप की फ़िल्म 'मुक्काबाज़' के गीतकार हुसैन हैदरी से बात करने का मौका मिला। कई सारे गानों, गीतकारों, संगीतकारों, फिल्मों के बारे में बात हुई, और निश्चित रूप से बात हुई ख़ुद हुसैन और उनके इस सफ़र के बारे में, जिसे तय करते हुए उन्होंने गुड़गांव, क़रीब क़रीब सिंगल, और मुक्काबाज़ में गीत लिखे हैं। उन ढेर सारी बातों में से कुछ मज़ेदार किस्से, और कुछ काम की बातें आपके लिए।

राइटर बनने का कोई प्लान नहीं था

मैं कवितायें लिखता था, लेकिन ऐसा कभी सोचा नहीं था कि इसे काम की तरह करूंगा। सच कहूँ तो ये मान ही लिया था कि अब सारी ज़िन्दगी कॉर्पोरेट जॉब ही करनी है। लेकिन अगस्त 2014 तक कलकत्ता में रहते हुए कुछ ऊब सा चुका था। ऐसा नहीं कि तब लेखक बनने की तैयारी हो गयी हो, लेकिन सब दोस्त वगैरह मुंबई में ही थे, तो लगा कि मुंबई ही चलना चाहिए। लेकिन फिर एजुकेशन लोन भी था चुकाने के लिए, सो एक साल और वहीं काम किया, और 2016 के शुरू में यहाँ चला आया।

यूँ ही छोड़ दी थी नौकरी

2015 के अंत में जब नौकरी छोड़ी थी तो कुछ पता नहीं था कि क्या करना है। 2016 को एक जनवरी की सुबह उठा तो सिर्फ़ ये सोचकर फिर सो गया कि आज तो छुट्टी है। 12 दिन बाद का टिकट था दिल्ली का। लेकिन वो 12 दिन तो खाली ही थे।

'ट्रेनिंग ग्राउंड' है दिल्ली

मैं दिल्ली में लगभग दो महीने रहा। दिल्ली जाने का एक कारण तो ये था कि मुझे दिल्ली के बारे में बहुत ही काम जानकारी थी, और एक ये भी कि मुझे लगता है कि कला के क्षेत्र में काम करने वालों के लिए दिल्ली एक ट्रेनिंग ग्राउंड की तरह काम करता है। ये दो महीने वहाँ गुज़ारने से पहले मुझे दिल्ली से डर लगता था। अब मुझे दिल्ली से प्यार हो गया है।

मुंबई के लोग बहुत पसंद हैं

मुंबई में इससे पहले भी रह चुका हूँ। यहाँ सबसे अच्छी बात ये है कि शहर की भागदौड़ और हर किसी के पास वक़्त की कमी के बावजूद लोग आपकी मदद करने को तैयार रहते हैं। आप किसी से रास्ता पूछिए, वो अपने फ़ोन को होल्ड पे रख के आपको रास्ता बताएगा। मुझे नहीं पता ऐसा कैसे है। शायद एक वजह यह भी है कि लोग एक दूसरे के स्ट्रगल को समझते हैं।

एक डिबेट कॉम्पिटिशन ने शौक चढ़ाया कविता का

मैं लगभग 17-18 साल का था जब मुझे एक डिबेट कॉम्पिटिशन में बोलने के लिए कुछ शायरी की ज़रुरत थी। मैंने अपनी हिन्दी टीचर से पूछा, तो उन्होंने कहा कि दुष्यंत कुमार और निदा फ़ाज़ली को पढ़ो। मेरे पापा की किताबों की दुकान है, तो मुझे मिलीं साये में धूप, और निदा फ़ाज़ली साहब की आज के प्रसिद्द उर्दू शायर सीरीज़ की किताब जो राजकमल छापता है।

पढ़ने में मज़ा आया, तो फिर मैंने ये सीरीज़ पढ़नी शुरू की। बशीर बद्र, अहमद फ़राज़, अमीर क़ज़लबाश, कृष्ण बिहारी 'नूर' सब पढ़े। उतने में शायरी पढ़ने का चस्का लग चुका था। तो फिर राहत इंदौरी, वसीम बरेलवी, मुनव्वर राणा, राजेश रेड्डी पढ़े। गुलज़ार और जावेद अख़्तर पढ़े, और फिर थोड़ा और पीछे जाकर PWA से साहिर, फ़ैज़ अहमद फ़ैज़, जाँनिसार अख़्तर, मजाज़ लखनवी पढ़े। अख़्तर शीरानी, अल्लामा इक़बाल पढ़े। पाकिस्तानी शायर वसी शाह, जॉन एलिया, हबीब जालिब पढ़े। फिर और पीछे गए, मिर्ज़ा ग़लिब, दाग़ देहलवी, शेख़ इब्राहिम ज़ौक़, नज़ीर अकबराबादी से लेकर अकबर इलाहाबादी तक पढ़े।

लेकिन जब कलकत्ता पहुँचा तो उर्दू की सब किताबें घर रह गयीं। सो हिन्दी के लेखक और कवि पढ़ने शुरू कर दिये। सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, विनोद कुमार शुक्ल, उदय प्रकाश को पढ़ा। इसके अलावा इंग्लिश फिक्शन बहुत पढ़ा था। लेकिन ये सब सिर्फ़ शौक था। मुझे ये तक पता नहीं था कि राइटिंग में किस किस तरह का काम होता है। ख़ुद लिखने के बारे में सोचना तो दूर की बात थी।

ऐसे मिली फ़िल्म

मेरी एक दोस्त हैं, ग़ज़ल (धालीवाल), जो उस समय तनूजा (चंद्रा) जी के साथ क़रीब क़रीब सिंगल में लिख रही थीं। ग़ज़ल से महीने दो महीने में मिलना हो जाता था। लेकिन मैंने कभी कहा नहीं कि मुझे गाने लिखने हैं, क्योंकि मेरी तैयारी बहुत कम थी। मेरा तो कम से कम एक-आध साल अभी कवितायें फिर से पढ़ने का विचार था। लेकिन ग़ज़ल ने मेरे बारे में तनूजा जी को बता भी दिया और फिर मैं जब उनसे मिलने गया तो तनूजा जी ने मुझे एक गाना भी लिखने को दे दिया। और इस तरह लिखा गया तन्हा बेग़म।

इस बीच वरुण (ग्रोवर) ने मेरा नाम अनुराग कश्यप को भी दे दिया था जो उस समय मुक्काबाज़ के लिए एक नया गीतकार ढूंढ रहे थे। वरुण ने मेरी काफ़ी सारी कवितायें सुनी थीं, और उन्हें मेरे ऊपर बहुत ज़्यादा भरोसा था कि मैं लिख सकता हूँ। शायद मुझ पर मुझसे ज़्यादा भरोसा वरुण को था।

मुक्काबाज़ के सारे गाने पहले लिखे

हालाँकि ज़्यादातर फ़िल्मों में पहले से बनी हुई धुन पर गाने लिखने पड़ते हैं, मुक्काबाज़ में सारे गाने पहले लिखे गए और बाद में रचिता ने उन्हें कंपोज़ किया।

एक ही ड्राफ़्ट में हुए ज़्यादातर गाने, लेकिन...

मुक्काबाज़ के लगभग सारे गाने एक ही ड्राफ़्ट में फ़ाइनल हो गए थे, बहुत दुखा मन को छोड़कर। उसकी कहानी मज़ेदार थी। पहले गाना अनुराग सर को अच्छा लगा, फिर 3-4 दिन बाद बोले, नहीं यार मज़ा नहीं आ रहा दूसरा लिखो, तो फिर मुझे लगा कि अब तो ये गाना नहीं हो पायेगा शायद। और भी कुछ लोग बोल रहे थे कि किसी और से लिखवा लो। मैंने तो मान ही लिया था कि इन्हें समझ आ गया है कि मुझे कुछ आता-जाता नहीं है, तो मैं तो निकलने के लिए तैयार ही था। लेकिन अनुराग सर ने ही कहा कि नहीं ये ही लिखेगा। और उस दिन मीटिंग से लौटते हुए ऑटो में वो गाना लिखा गया।

बहुत आज़ादी मिलती है अनुराग सर के साथ काम करने में 
अनुराग सर आपके काम के साथ ज़्यादा छेड़छाड़ नहीं करते। अगर उन्हें गाना पसंद आ गया है, तो वो बस उसे रख लेते हैं। लाइनें तो शायद ही कभी बदलवायी हों। हाँ अगर गाने का 'वॉइस' या ऐसा कुछ है तो बात अलग है। लेकिन फिर भी एक-दो बार उन्होंने नीचे की लाइनों को ऊपर कराया और उससे भी गाना बेहतर लगने लगा।

हाथापाई की कहानी

जिस सिचुएशन में अभी हाथापाई है, वहाँ स्क्रिप्ट में 'मुश्किल है अपना मेल प्रिये' लिखा था। मुझे नहीं पता था कि ये एक पुरानी कविता है। मुझे लगा इस टाइटल से गाना लिखा जाना है।

हाथापाई का सिर्फ़ थोड़ा सा हिस्सा लिखा था। ये तब लिखा था जब उन्होंने मुझे सिर्फ़ स्क्रीन करने के लिए बुलाया था। उस समय एक दूसरा गाना पूरा लिखकर ले गया था, जो कि अब फ़िल्म से कट गया है। तब वो पूरा गाना सेलेक्ट हो गया था, फिर आगे स्क्रिप्ट के नैरेशन के दौरान कुछ बात चल रही थी कि 'मुश्किल है...' यहाँ शायद ठीक नहीं बैठेगा। इस समय तक मुझे पता चल चुका था कि यहाँ 'मुश्किल है...' आ रहा है, तो मैंने हाथापाई के बारे में कुछ नहीं बोला था, लेकिन जब उन्होंने किसी से बात करते हुए कहा कि यहाँ शायद कुछ और आना चाहिए, तो मैं बीच में बोल पड़ा कि 'सर मुझे भी यही लग रहा था।' मेरा कहना था कि वो कहने लगे अगर लग रहा था तो कुछ लिखा क्यों नहीं। मैंने कहा कि लिखा है, और हाथापाई का एक छोटा सा ड्राफ़्ट सुना दिया। और वो उन्हें पसंद आ गया।

इच्छा थी 'हाथापाई' सुनने की

मुझे पता नहीं क्यों कलकत्ता में रहते हुए कभी लगा था कि किसी फ़िल्म में हाथापाई नाम का एक गाना होना चाहिए। लेखक या गीतकार बनके नहीं बोल रहा हूँ। मैं सिर्फ़ फ़िल्मी गाने सुनने वाले एक श्रोता की तरह ही चाहता था कि कोई ऐसा हाथापाई नाम का एक गाना लिखे। तब ये तो सपने में भी नहीं सोचा था कि मैं ख़ुद ही ये गाना लिखूंगा।

अनुराग कश्यप से हाथ मिलाना था बस

ऐसी कोई उम्मीद नहीं थी कि इतनी जल्दी अनुराग कश्यप की फिल्म में गाना लिखने का मौका मिल जाएगा। बस इतना सोचा था कि कुछ साल के अंदर एक बार अनुराग से हाथ मिलाने और उन्हें "मैं आपका बहुत बड़ा फैन हूँ सर" बोलने का मौक़ा मिल जाए। बस इतना ही मेरा ख़्वाब था।

कविता ही ले ली अनुराग सर ने

मैं अनुराग सर के घर पर ही बैठकर किसी और को 'छिपकली' सुना रहा था। तभी वो आ गए और कहने लगे, ये कविता दे दो। मैं कहने लगा कि ये कहाँ फ़िट होगी, तो कहने लगे ये तुम मत सोचो, तुम बस दे दो। और अब उसका फ़िल्म में पिक्चराइज़ेशन देखकर मुझे भी मज़ा आ गया।

जीनियस हैं स्वानंद किरकिरे

मैं एक दिन स्वानंद सर से कहीं मिलने गया था, और उन्हें छिपकली कविता सुना रहा था। मैंने तब ये भी बताया कि बाकी तो सब ठीक है लेकिन कविता को गाने में बदलने में कुछ मुश्किल हो रही है। और उन्होंने तुरंत कहा कि इस 'छिपकली निकलती है' को 'निकलती है छिपकली' कर दो, और फिर अगली लाइन में छिपकली के पीछे कुछ शब्द जोड़ के आराम से मुखड़ा बन जाएगा।

मैं कब से इस समस्या में उलझा पड़ा था और उन्होंने एक मिनट में इसका हल निकाल दिया। Supreme amount of talent.

एक और गीतकार

इसके अलावा एक और गीतकार ने थोड़ी सी मदद की। मैंने जब पहले 'बहुत दुखा मन' लिखा था तो इसे 'बहुत दुखा रे बहुत दुखा रे हाथ तोरा जब छूटा' लिखा था। लेकिन वो थोड़ा सा खटकता था। जब मैंने ये गीत पुनीत शर्मा को सुनाया तो मैंने उनसे पूछा कि इस रिपीटिशन को हटाने के लिए कुछ कर सकते हैं क्या, तो उन्होंने ही सुझाया कि इसे 'बहुत दुखा मन' कर दो। मुझे वो बहुत अच्छा लगा और मैंने लाइन बदल दी।

पत्ता कटने वाला है बस...

मुझे मुक्काबाज़ के गाने करते हुए आख़िर तक यही लग रहा था कि बस अब पत्ता कटने वाला है... कि बस अब इन्हें पता चल जाएगा कि मुझे गाना-वाना कुछ लिखना नहीं आता। बस किसी को पता लगा नहीं! :)

गाने लिखता हूँ, स्टडी करता हूँ

गीतकार तो अभी सब एक से बढ़कर एक ही हैं। पिछले कुछ सालों में ही स्वानंद किरकिरे, अमिताभ भट्टाचार्य, कौसर मुनीर, इरशाद कामिल, वरुण ग्रोवर जैसे लोगों ने कितने अच्छे गीत लिखे हैं। इरशाद कामिल के गानों को तो मैं चमेली से ही फॉलो कर रहा हूँ। उनके कई गाने इतने अच्छे लगते हैं कि मैं उन्हें लिख के स्टडी करता हूँ।

गुलज़ार साहब और उनका कमरा

गुलज़ार साहब के कमरे के मैंने कुछ फ़ोटो देखे हैं। ऐसा लगता है किताबों से ही दीवारें बनी हुई हैं। और उनकी मेज़, वो मेरे गद्दे के बराबर होगी (हम हुसैन के कमरे में थे जहाँ ज़मीन पर ही उनका गद्दा पड़ा है), उसपे ढेर लगे हुए हैं किताबों के।

और क्या लिखते हैं वो, कुछ भी कर देते हैं। कुछ भी लिख देते हैं, कुछ भी। कोई बंधन ही नहीं है किसी तरह का। अपने को बिलकुल खुला छोड़ा हुआ है उन्होंने। ये कुछ लोगों के हिसाब से ये आलोचना करने का पॉइंट भी बन जाता है, लेकिन मैं तो इसे बहुत बड़ी ख़ासियत मानता हूँ जो शायद कुछ ही लोगों में हो सकती है।

फिल्मी कहानी

कलकत्ता में कोलकाता बुक फेयर मिलन मेला में मैंने सिराज साहब के बुलाने पे बहुत दिनों के बाद एक नई नज़्म लिखकर सुनाई थी, इस सब्जेक्ट पे कि अब मैंने नज़्म लिखनी बंद कर दी है। उस गोष्ठी के बाद एक अंकल मेरे पास आये और मुझसे हाथ मिलाया और कहा कि बेटा तुम बहुत अच्छा लिखते हो। और फिर मेरा हाथ पकड़े हुए ही कहा कि बेटा तुम कसम खाओ, तुम लिखोगे। वो घटना मुझे कुछ अजीब तो लगी, लेकिन शायद इसके बाद मैंने लिखने पे और ध्यान देना शुरू कर दिया। अब इस बारे में सोचता हूँ तो कई बार सपना सा लगता है, लगता है कि ये हुआ भी था या नहीं।

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